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पार्टी का अवधारणा (मानना)
सभी राजनीतिक पार्टियां किसानों की बात करते हैं ‘किन्तु इसका प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं । अपनी पार्टी का शोभा बढ़ाना इनका मकसद होता है ।
किसान लगातार आजादी के बाद शोषित हो रहे हैं क्योंकि इनका उत्पाद का दाम लागत से कम मिलता है । फिर भी सरकार सब्सिडी देकर अपना फ़र्ज़ पूरा करती है । यह भी बड़ा धोखा है । जैसे एक किसान गेहूँ , धान , मक्का गोभी , आलू इत्यादि के उत्पाद पर प्रति फसल प्रति एकड़ (15000) पंद्रह हजार का नुकसान होता है , तो पाँच एकड़ पर पाँच फसल से 75000 प्रति वर्ष नुकसान होता है , तो वर्षों में यदि हम गणना करें तो छोटे किशनों का 5200500 का नुकसान होता है । बड़े किसानों की गणना आप खुद कर जान सकतें हैं कि क्या सब्सिडी किसानों के लिए धोखा नहीं है ?
किसान 40 किलो गेहूँ का बीज बोकर 40 मन पैदा करता है , किन्तु इसका दाम तय नहीं है । इतना उत्पादन के बाद भी उसे अपना उत्पाद नुकसान में बेचना पड़ता है । जबकि एक उद्योगपति 10 किलो लोहे को गला कर 8 बाल्टी तैयार करता है , जिसकी लागत 80 रुपया होता है जिसपर बराबर का मुनाफा तय कर 160 रु० मे बेचता है ।
किसानों का फसल , बाढ़ , सु्खाड़, कीड़ाखोरी, बाजार के अभाव में उत्पाद का नहीं बिकना न इसके लिए कोई ठोस नीति नहीं है जिस कारण सम्पूर्ण देश के किसान अच्छी लागत एवं कड़ी मेहनत के बावजूद भूखा, नंगा देश के सामने खड़ें हैं ।
कर्ज के बोझ से आत्महत्या के वावजूद कोई ठोस कृषि नीति अब तक नहीं बनी ।
किसान का कोई प्रवक्ता नहीं है, इनकी बात कोई नही करता इनके लिए कोई ठोस नीति अब तक नहीं बनीं ।
किसान जब तक अपनी बात खुद नहीं करेंगे तब तक किसानों के अच्छे दिन नहीं आ सकते ।
राजनीतिक पार्टिओं के बात पर किसान का भला कभी संभव नहीं हो सकता । इन बातों पर यदि शक हो तो आप उदाहरण देकर बता सकते हैं ।
किसान को अपनी बेहतरी के लिए खुद नेता बनना होगा ।
किसान जान की बाजी लगाकर उत्पादन करता है , पूरे देश को खिलाता है स्वंय भूखा , नंगा, कर्जदार , हीन भावना से ग्रसित होकर आत्महत्या के लिए विवश है ।
लानत है राजनीतिक पार्टिओं का जो आजादी के 70 साल बाद भी इस उत्पादन पुरुष पर दया नहीं आयी।
जिस देश का उत्पादन पुरुष आत्महत्या करता है , उसी देश के उद्योगपति देश का अरबों-खरबों रुपये लेकर विदेश भागता है। क्या कोई उद्योगपति आत्महत्या किया है? कोई जवाब है सरकार के पास?
उत्पादन पुरुष अपना उत्पादन लेकर नंग- धरंग, मैला -कुचैला कपड़ा पहने आप के दरवाजे पर खड़ा होकर कहता है कि मैंने गेहूं , धान , मक्का , आलू , सेब , संतरा आदि पैदा किया हूँ इसका दाम लगा दो । जबकि किसान की मिट्टी , मजदूरों की मेहनत से उद्योगपति ईंट तैयार करते हैं इसकी लागत प्रति ईंट 2 से 2.50 रुपये आता है जिसका बाजार दर 6 रुपये प्रति ईंट तय कर बेचा जाता है ।
क्या ठोस नीति के तहत क्षेत्रवार फसलों का वर्गीकरण कर खपत के आधार पर उत्पादन का लक्ष्य तय करना, बाजार की व्यापक व्यवस्था आज तक नहीं हो पायी ।
जमीन रजिस्ट्रेशन की फी बेतहाशा बढ़ा कर सरकार यह तय कर दी कि किसान जमीन खरीद नहीं केवल बेच सकता है । जमीन उद्योगपति बड़े घराने के लोगों के हाथ में चला जाय सोची समझी चाल है , जिससे किसान केवल मजदूर बनकर अपनी जीवन यापन कर सके ।
किसान आत्महत्या क्यों करतें हैं इस पर कोई नहीं सोचता किन्तु किसान की बेहतरी के लिए केनाल के नाम पर, सिंचाई के नाम पर अरबों- खरबों रुपया प्रति वर्ष वारा- न्यारा सरकार में बैठे नेता, आफिसर एवं ठीकेदार कर लेते हैं ।
स्वास्थ्य एवं दवाइयों के नाम पर हजारों- करोड़ों का वारा-न्यारा हो रहा है लेकिन जहाँ किसान बसता है वहाँ न डॉक्टर है न दवा ।
किसानों के बच्चे गाँव के स्कूल में पढ़ते हैं जहाँ शिक्षक नहीं जाते , जाते भी हैं तो पढ़ाते नहीं । पढ़ाई होती है कि नहीं बच्चे पढ़ाई में आगे बढ़ रहे हैं कि नहीं इसका कोई मापदंड तय नहीं हैं । यह किसान के बच्चे अच्छी पढ़ाई कर कहीं आगे न बढ़े । यह सियासी चाल है ।
सियासी चाल के तहत चुनाव में आरक्षण देकर हमें प्रतिनिधित्व का मौका दिया गया किन्तु आफिसर को निर्देश है की सरकार जो कहे वही करो प्रतिनिधि कोई चीज नहीं है ।
क्या इन तमाम सवालों पर कोई राजनीतिक पार्टी कुछ बोलती हैं ? इसलिए की यह आप का सवाल है ।
यह आप का सवाल है , आज तक किसी ने नहीं उठाया, अब आप को अपना सवाल खुद उठाना होगा तभी होगा भला ।
गाँव के किसान, मजदूर खीरा की चोरी मे जेल जाते हैं , किन्तु ऑफिस के बाबू , आफिसर , नेता , ठीकेदार सोना , हीरा चुराते हैं उसका कोई सुधी नहीं लेते , क्योंकि किसानों, मजदूरों का कोई प्रवक्ता नहीं है, न ही कोई ठोस संगठन है ।
सब्सिडी एवं बीज फसल काटने के बाद दी जाती है यह किसानों के प्रति धोखाधड़ी नहीं तो क्या है ?
किसान फूस की झोपड़ी मे बसते है अगलगी में घर जल गया तो क्या 2500 के अनुदान मे घर बन सकता है यह धोखा नहीं तो क्या है ?
बाढ़ मे लगी धान आदि कि फसल दह गया , क्या किसानों को मुआवजा मिला , बैंकों से खेती के लिये मिला कर्ज माफ हुआ ?
क्या नवोदय विद्यालय में किसानों के बच्चों का दाखिला हो रहा है ? यहाँ भी बाबु , ऑफिसर , ठीकेदार के बच्चे गाँव के लोगों को धोका देकर अपने बच्चों का दाखिला करा रहे हैं ।
इतना ही नहीं और भी ढेरों सवाल , समस्यायें हैं जिनके लिये आप को जाति , धर्म , संप्रदाय , ऊंच-नीच तमाम दुषित भावनाओं से उपर उठ कर केवल और केवल किसान की पार्टी बनानी होगी ।
राजनीतिक पार्टियाँ, ठीकेदार, रंगदार एवं शोषक पैदा करते हैं । इस तरह कि राजनीतिक पार्टी में किसान का क्या मतलव जब कि उसे केवल और केवल खेती कर जीवन- यापन करना है ।
भारत के संविधान निर्माताओं ने भी किसान को छोड़ दिया। संविधान के किसी भी अनुच्छेद मे उस बात कि चर्चा नहीं की गई कि यदि किसानों की फसल मारी जाती है तो किसान / आबादी क्या खायेगा ।
महात्मा गाँधी जी ने आजादी दिलाने के लिए लाखों देहाती को अगवा किया इन्हीं के व्यापक सहमति सहयोग समर्पण से आजादी मिली । जबकि बाबू किस्म के लोग घर बैठे रहे। किन्तु आजादी के बाद इनकी जीविका खेती कैसे चले, कैसी हो, एक भी शब्द नहीं कहा ।
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